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श्री १०८ प्राणनाथ जी मंदिर ट्रस्ट पन्ना -488001 (म.प्र )

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    श्रीकृष्‍ण प्रणामी धर्म

    धर्मप्रेमी सज्‍जनो, सृष्टि के प्रारम्‍भ से ही मनुष्‍य में यह जनाने की जिज्ञासा रही है कि मैं कौन हॅू? कहॉ से आया हॅू? इस सृष्टि का निर्माता कौन हैं? वह सच्च्दिांनद परब्रह्म कहॉ हैं? कैसा है? और वह कैसे प्राप्‍त होता है? मनीषी जनों ने इन प्रश्‍नों का यथावत जबाव पाने का भरसक प्रयास किया किन्‍तु तारतम ज्ञान के अभाव में किसी को भी उसकी प्राप्ति का ऑखो देखा सही उत्‍तर न मिल सका । इस तारतम ज्ञान (ब्रह्मवाणी) को लाने वाले पूर्ण ब्रम्‍ह स्‍वरूप श्री प्राणनाथ जी हैं जिन्‍होने श्री मेहराज ठाकुर के कलेवर में विराजमान होकर लीला की । पुराण सहिंता में इस संबंध में कहा गया है– सुन्‍दरी च इन्दिरा नामाभ्‍यां चन्‍द्रसूर्ययो: । मायान्‍धकार विनाशाय भविष्‍यत: कलौयुगे ।। अर्थात कलियुग में माया रूपी अज्ञानांधकार को दूर करने के लिये दिव्‍य परमधाम की दो आत्‍मायें सुन्‍दरी ( सुन्‍दरबाई- श्‍यामाजी ) और इन्दिरा ( इन्दिरावती ) दो शरीरों को धारण करेंगी, जिनके कार्य क्रमश: चन्‍द्र और सूर्य के प्रकाश रूप होंगे । इन दोनों कलेवरों में परब्रह्म विराजमान होकर लीला करेंगे । ये ही दो महाप्रभु क्रमश: धनी श्री देवचन्‍द्र जी ( 1581 – 1655 ई.) और महाप्रभु श्री मेहराज ठाकुर ( 1618 – 1694 ई.) पूर्णब्रह्म के अवतार हुए । धर्मगन्‍थों में इन्‍हें ही ‘बुद्वावतार’ और ‘विजयाभिनन्‍द बुद्व निष्‍कलंक अवतार’ कहा गया है । बुद्वगीता में कहा गया है – अक्षरारीत एषो वै पुरूषो बुद्व उच्‍यते । तेजोमयादिरूपश्‍च तस्‍यावतार उच्‍यते ।। ये विजयाभिनन्‍द बुद्व निष्‍कलंक स्‍वरूप श्री प्राणनाथ जी ( श्री मेहराज ठाकुर ) ही उस तेजोमय उत्‍तम पुरूष अक्षरातीत के प्रगट स्‍वरूप हैं । प्राणनाथ किसी मानव शरीर का नाम नहीं है, अपितु सच्च्दिानन्‍द परब्रम्‍हा को ही प्राणपति ( प्राणनाथ ) कहते है – ‘तुम हो एक अगोचर सबके प्राणपति’ जब श्री मेहराज के देह में अक्षरातीत परब्रह्म विराजमान हो गये, तो इन्‍हे ही प्राणनाथ कहा गया । इस संबंध में भविष्‍योत्तर पुराण अघ्‍याय 72 ब्रह्मखण्ड में कहा गया है कि – विक्रमस्‍य गतेऽब्‍दे सप्‍तदशाष्‍टत्रिंश यदा । तदायं सच्च्दिानंदो ह‍ि अक्षरात्‍परत: पर: ।। भारते च इन्दिरायां स बुद्व आविर्भविष्‍यति । स बुद्व कल्किरूपेण क्षात्रधर्मेण तत्‍पर: । चित्रकूटे वने रम्‍ये विजायाभिनन्‍दनो भवेत् ।। अर्थात विक्रम संवत् 1738 में ( संवत 1735 से उदयमान ) अक्षर से परे वह सच्च्दिानन्‍द परब्रह्म भारत वर्ष में परमधाम की श्री इन्‍द्रावती जी की आत्‍मा में श्री विजयाभिनन्‍द बुद्व‍ निष्‍कलंक स्‍वरूप में चित्रकूट के रमणीय वन ( श्री 5 पद्वावतीपुरी ) पन्‍ना विंध्‍याचल में प्रगट होंगें । सुन्‍दरी तंत्र में कहा गया है – पद्वावती केन शरदे विन्‍ध्‍यपृष्‍ठे विराजिता । इन्दिरा नाम सा देवी भविष्‍यति कलौ युगे ।। अर्थात पद्वावती ( किलकिला नदी और केन नदी के मध्‍य ) विध्‍याचल की धरती पर इन्‍दावती की आत्‍मा में परब्रम्‍हा प्रकट होकर लीला करेंगे – नदी किलकिला तीर पे, उतरे परमहंस आए । तिनके सिरदार अक्षरारीत, देख अपना सुख पाए ।। महाराजा छत्रसाल जी ने श्री प्राणनाथ जी को पूर्णब्रम्‍हा के रूप में पहचाना तथा महारानियो समेत सपरिवार उनकी आरती उतारी । ‘ बीतक ‘ ग्रन्‍थ की निम्‍नांकित चौपाइयॅा देखें – चौपडे की हवेली मिने, तहॉ पधराये श्री राज । चले आप सुखपाल ले, कॉध पर कॅुवर महाराज।। साथ समस्‍त के बीच में, जुगल धनी बैठाए। कही तुम साक्षात अक्षरातीत हो, हम चीन्‍हे तुम्‍हे बनाए ।। श्री ठकुरानी जी संग ले, पधारे मेरे घर । धनी बिना तुम्‍हें और जो देखे, सो नहीं मिसल मातबर ।। यह वही पूर्णब्रम्‍हा का स्‍वरूप है, जिसके लिये दुनिया युगों – युगों से बाट देख रही थी । प्रगटे पूर्णब्रम्‍हा सकल में, ब्रम्‍हासृष्टि सिरदार । ईश्‍वरी सृष्टि और जीव की, सब आए करो दीदार ।। सुनियो दुनिया आखरी, भाग बडें हैं तुम । जो कबूं कानों ना सुनी, सो करो दीदार खसम ।। कई देव दानव हो गये, कई तीर्थकर अवतार । किन सपनो ना श्रवनों, सो इत मिल्‍या नर नार ।। श्री प्राणनाथ जी वे ही अक्षरारीत परब्रम्‍हा हैं, जिनके विषय में मुण्‍डकोपनिषद् में ‘अक्षरात्‍परत: पर:’और गीता 15-17 में ‘उत्‍तम: पुरूषस्‍त्‍वन्‍य: परमात्‍मयेत्‍युदाह्रत:’ कहा गया हैं । इन्ही परब्रम्‍हा के विषय में रामायण के बालकाण्‍ड में कहा गया है कि – नेति नेति जेहि वेद निरूप, निजानंद निरूपाधि अनूपा । शंभु विरंचि विष्‍णु भगवाना, उपजहिं जासु अंश ते नाना ।। देवी भागवत 4 / 19 / 2 में कहा गया है – अहं ब्रम्‍हा अहं विष्‍णु: शिवोहमिति मोहिता । न जानिमो वयं धात: परं वस्‍तु सनातनम् ।। अर्थात् मैं ब्रम्‍हा हॅू, मै विष्‍णु हॅू तथा मैं शिव हॅू , इस प्रकार हम लोग माया से मोहित हो रहे हैं । उस सनातन सच्च्दिानंद परब्रम्‍हा को हम नहीं जानते हैं । संख्‍या चेद्रजसामस्ति न विश्‍वानां कदाचन । तथा ब्रम्‍हा विष्‍णु शिवादीनां संख्‍या न विद्यते ।। अर्थात् धूल के कणों की संख्‍या कदाचित गिनी जा सकती है, किन्‍तु असंख्‍य ब्रम्‍ह्रााण्‍डों और उनमें रहनें वाले ब्रम्‍ह्राा, विष्‍णु तथा शिवाादि देवों की संख्‍या को नहीं गिना जा सकता है । यं ब्रम्‍ह्रावरूणेन्‍द्र रूद्र मरूतस्‍तुन्‍वन्ति दिव्‍यै: स्‍तवै: । वेदै: सांगपदक्रमोपनिषदै: गायन्ति यं सामगा: ।। ध्‍यानावस्थित तद्गतेन मनसा पश्‍यन्ति यं योगिनो । यस्‍यान्‍तं न विदु: सुरासुरगणा: देवाय तस्‍मै नम: ।। जिस सच्च्दिानंद परब्रम्‍ह्रा की ब्रम्‍ह्रा, वरूण, रूद्र, इन्‍द्र, वायु इत्‍यादि देवगण दिव्‍य स्‍तुतियों से स्‍तवन करते हैं, सामवेद के गायक जिसका गायन करते हैं, योगी लोग ध्‍यान में स्थित होकर जिसका साक्षात्‍कार करते हैं, जिसका अन्‍त न तो देवता जानते हैं और न असुर, उस अक्षरारीत सच्च्दिानंद परब्रम्‍ह्रा को प्रणाम है । ऐतरेयोपनिषद् में कहा गया है –‘एकमेवाद्वितीयम’अर्थात परब्रम्ह्रा एक ही हैं और उसके समान कोई और नहीं है । श्री प्राणनाथ जी वही अक्षरारीत हैं जिनके प्रगटन के संबधं में पुराण संहिता में कहा गया है – कलि: धन्‍य: कलि: धन्‍य: कलि: धन्‍य: महेश्‍वर: । यत्र ब्रम्‍ह्राप्रियाणाम् च वासना समुपाविशन् ।। यह अट्टाईसवां कलियुग धन्‍य है, जिसमें परब्रम्‍ह्रा श्री प्राणनाथ जी अपनी ब्रह्राप्रियाओं के साथ प्रगट हुये है । उपरोक्‍त कथन जिन श्री प्राणनाथ जी के विषय में कहे गये हैं उनका प्रगटन आश्विन कृष्‍ण चतुदर्शी वि.सं. 1675 को जामनगर ( गुजरात) में हुआ था । यह पन्‍ना नगर श्री प्राणनाथ जी की प्रेरणा से आज से 332 वर्ष पूर्व स्‍थापित हुआ है । श्री प्राणनाथ जी की वाणी संसार के सभी लोगो को एक सत्‍य की राह पर चलने के लिये प्रेरित करती है । उनके निम्‍नांकित वचन देखें – जो कुछ कह्रा कतेब ने, सोई कह्राा वेद । दोउ वंदे एक साहब के, पर लड़त बिना पाये भेद ।। पारब्रम्‍ह्रा तो पूरन एक है, ए तो अनेक परमेश्‍वर कहावें । अनेक पंथ जुदे जुदे, और सब कोई सास्‍त्र बोलावें ।। पार पुरूष पिया एक है, नाहिन दूजा कोए । और नार सब माया, यामें भी विध दोए ।। अत: सभी धर्मप्रेमी सज्‍जनों से निवेदन है कि पूर्णब्रम्‍ह्रा श्री प्राणनाथ जी के स्‍वरूप को पाहिचान कर अपने जीवन को सार्थक बनायें ।



    श्री ५ पद्मावतीपुरी धाम का महत्व

    राखिये ह्रदय बीच में, पुरी पद्मावती कौ ध्यान । पुरी कही सब जगत में, सबसे उत्तम धाम ॥ एक समय भगवान शिव शंकर देवी पार्वती के साथ विंध्याचल पर्वत से होते हुए चित्रकूट क्षेत्र के भ्रमण हेतु निकले। रास्ते में केन नदी के किनारे पर्वत के पृष्ठ पर पहुंचे जहां चारों ओर सागौन, साल, महुआ, अचार, आम, जामुन, वट, पीपल, अर्जुन आदि वृक्षों से आच्छादित हरा भरा जंगल था यहीं ऊंची टेकरी को देखकर भगवान शंकर रुके और उक्त ऊंची टेकरी को साष्टांग प्रणाम किया। देवी पार्वती ने जब देखा कि ह्मारे प्रभु इस निर्जन जंगल में पत्थर की विशाल शिला को प्रणाम कर रहे हैं तो वे अपनी जिज्ञासा छुपा न सकीं, उन्होंने प्रश्न कर ही लिया - "स्वामी इस वीरान जंगल में आप इस पत्थर की टेकरी को साष्टांग प्रणाम कर रहे हैं। कृपया हमें बतायें यहां एसा एसा क्या है ?" भगवान शंकर बोले - "देवी, यह ब्रह्माण्ड में अकेला एसा स्थान है जहां अखण्ड अनंत अविनाशी पूर्णब्रह्म परमात्मा की प्रियाओं में प्रिय इंदिरा सखी अपनी सखियो सहित आकर निवास करेंगी तथा सम्पूर्ण सृष्टि को मुक्ति प्रदान करेंगी। यह जो विशाल पत्थर की शिला है इसे महादेवी लक्ष्मी ने अपने आंसुओं से धोया है तथा इसी पर बैठक्रर सात कल्पांत तक तपस्या की है। "देवी पार्वती की जिज्ञासा यह बात सुनकर और अधिक बढ गई। उन्होंने कहा, "प्रभु मैं आपकी यह बात सुनकर बहुत व्याकुल तथा उत्सुक हो रही हूं, कॄपया मुझे लक्ष्मी जी की इस तपस्या का रहस्य विस्तारपूर्वक बतलाइए।" तब भोलेनाथ ने कहा, "एक बार भगवान विष्णु जी एकान्त पाकर अपने इष्ट के चिन्तन में लीन थे कि तभी देवी लक्ष्मी ने आकर उनकी तन्द्रा तोडते हुए उनसे आग्रह किया, "प्रभु आप तो सब लोकों के नाथ हैं। ब्रह्माण्ड में आपसे बडा कोई नहीं है, फिर आप किसका चिन्तन कर रहे हैं। "उनके इस प्रकार पू्छने पर भगवान ने कहा, "प्रिये ! मैं अपने इष्ट का चिन्तन कर रहा था। जो अनादि अविनाशी पुराण पुरुष हैं।" इस पर लक्ष्मी जी ने कहा, "प्रभु आप ही तो अविनाशी पुराण पुरुष हैं।" तब भगवान बोले, "नहीं प्रिये ! महाप्रलय में समग्र सृष्टि के लय हो जाने पर मैं भी गर्भोदक क्षीर सागर के साथ उसी अवीनाशी अक्षर स्वरूप में विलीन हो जाता हूं। मेरे सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उन्हीं के मन की सृष्टि है।" लक्ष्मी जी को यह बात सुनकर बडा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, 'प्रभु, हमें भी उस अखण्ड अविनाशी अक्षर पुरुष के दर्शन करवाइये।" तब भगवान बोले, 'प्रिये ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में तुम से प्रिय मुझे कौन होगा, किन्तु उस पुरुष का और उसके धाम का वर्णन कर पाना मेरे लिये संभव नहीं है।" इस पर महादेवी ने अनुनय विनय करते हुये बहुत ही आर्द्र नेत्रों के साथ पुनः आग्रह किया, "प्रभु ! मैं आपकी अर्धांगिनी हूं, आप मुझसे दुराव न करें।" इस प्रकार कहते हुए देवी लक्ष्मी जी दुःखी हो बार बार आग्रह करने लगीं। भगवान ने उन्हें मनाने का भरसक प्र्यास किया और कहा कि मैं उस पुरुष का बखान करने में असमर्थ हूं, किन्तु लक्ष्मी जी उदास चित्त होकर एकांत ढूंढते हुए इसी घोर जंगल में आकर इस शिला पर बैठ गई और तपस्या में लीन हो गई। इस प्रकार तपस्या करते हुये उन्हें सात कल्प व्यतीत हो गये। इतना सुनने पर पार्वती ने प्रश्न किया, 'स्वामी ! यह कल्प कितने समय का होता है ?' भगवान शम्भु ने बतलाया, 'एक कल्प ब्रह्मा जी के एक दिन्व रात के बराबर होता है। इस मृत्यु लोक में उस एक कल्प में चौदह मनु हो जाते हैं। प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी (सत्य, त्रेता, द्वापर और कलियुग) से कु्छ अधिक काल (७१-३/७ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है, इसे एक मनवन्तर कहते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर में मनुवंशी सप्तर्षि देवगण इन्द्र गन्धर्वादि साथ साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं। इस प्रकार के चौदह मन्वन्तर बीतने पर ब्रह्मा जी का एक दिन व उतनी ही बडी रात्रि होती है। इसे ही एक कल्प कहते हैं।'